अब उठ धरा के सूरज, रज का तिलक लगा ले।

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ये जग भी सो रहा है और सो रही है बस्ती।
और सो रहा है नाविक अब डूबती है कस्ती।।

अब उठ धरा के सूरज, रज का तिलक लगा ले।
सब छोड़ व्यस्त बाना, डट कर कदम बढ़ा ले।।

तुम ही समय के सूरज, तुम ही समय के चंदा।
पहले मिटा दो उनको जो बन रहे हों फंदा।।

ये तितलियों के बंधन, ये तितलियों के आँगन।
सब तोड़ दो और छोडो, बिन कर ह्रदय में क्रंदन।।

हों नाज़ तुझपे उसको, जिसने तुझे बनाया।
होल बुलंद इतना, कोई जो छू न पाया ।।

By- परमानन्द प्रजापति

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